रियासती काल में मारवाड़ एक रियासत थी। इस रियासत़ की लम्बाई 380 मील और चैड़ाई 170 मील थी। मारवाड़ में मेड़ता, नागौर, मंडोर, फलोदी, शेरगढ, पचपदरा, सिवाना, शिव, मालाणी, सांचोर, पोकरण, पाली, जैतारण, जसवंतपुरा आदि परगने थे यानि वर्तमान के जोधपुर, नागौर, बाड़मेर, पाली, जालौर और कुछ भाग जैसलमेर जिले का मारवाड़ रियासत में आता था। हालांकि यह क्षेत्र समय-समय पर कम-ज्यादा भी होता रहा। मारवाड़ के नामकरण के संबंध में अलग-अलग मत है। कुछ इतिहासकारों का मत हैं कि जल विहीन भाग को मरुभूमि कहा जाता है और इससे कालांतर में नाम मारवाड़ पड़ा। दूसरे मत के अनुसार मरु और मारवाड़ दो देशों को मिलाकर जो देश बना वो मारमाड़ या मारवाड़ कहलाया। एक मत के अनुसार इस भूभाग का नाम मरुधरा से मारवाड़ पड़ा।
कहते है कि यहां पर पहले टिथिस सागर था जो कालांतर में सूख गया। यहां पर सरस्वती नदी के बहने के खोज भी पुरातत्वेताओं ने की है। इस नदी को यहां हाकड़ा नदी कहा जाता हैं।
मारवाड़ में निवास करने वाली जातियों में जाट अधिसंख्यक है। जाटों के मूल निवास स्थान के बारे में विद्वानों के अलग-अलग मत हो सकत है किन्तु यह निर्विवादित तथ्य है कि जाट मुख्यतः सिंधु और उसकी सहायक नदियों के किनारे यानि सिंध और पंजाब में निवास करते थे।
प्रो. पेमाराम लिखते है कि 326 ई. पू. में जिस समय भारत पर सिकंदर का आक्रमण हुआ, उस समय पंजाब में बसे जाटों को अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने के लिये राजस्थान की तरफ आना पड़ा। इसी प्रकार चच नामक सिंध के राजा ने वहां के जाटों पर कुछ कठोर नियम थोप दिये। इस कारण से जाट सिंध क्षेत्र से अपने स्थान छोड़कर सुरक्षित स्थान की तलाश में बाड़मेर, जालौर, सिरोही में आकर आबाद हो गये।
इतिहासकारों के शोध से पता चलता है कि मारवाड़ में तीन और से जाटों ने प्रवेश किया। पहला, सिंध नदी से उमरकोट होते हुए बाड़मेर, जालौर, सिरोही तक का रास्ता। दूसरा, सतलज की ओर से बीकानेर के रास्ते नागौर की तरफ और तीसरा पंजाब से सिरसा, हांसी, चुरु होते हुए जोधपुर तक।
सिंध और पंजाब से समय-समय से जैसे-जैसे जाट मारवाड़ की तरफ आते गये, इस क्षेत्र में बसने के साथ ही उन्होंने प्रजातंत्रीय तरीके से अपने छोटे-छोटे गणराज्य स्थापित कर लिये। ये गणराज्य अपनी सुरक्षा भी स्वयं कर लेते थे और मिल-बैठकर आपसी विवाद भी सुलझा लेते थे।
तीसरी के बाद यौधयों को हराकर नागों ने नागौर के क्षेत्र पर अधिकार किया। यौधयों को हराने वाले पदमावती के भारशिव थे जिन्होंने चौथी सदी से लेकर छठी सदी तक अन्य भागों के साथ ही जोधपुर, नागोर, जालोर से जसंवतपुरा तक राज किया। नागौर के आस पास अनेक नागवंशी मिसलों के नाम पर गांव बसे हुए है जैसे इनाणियां का इनाणा, भाकल का भाखरोद, भरणा का भरणगांव, धोला का खरनाल, फिरड़ोदां का फिड़ोद, काला का काल्याण, बानों का भदाणा आदि। यहां पर नागों का राज चैथी से छठी सदी तक रहा। फिर आठवीं से दसवीं सदी के अंत तक फिर नागोर क्षेत्र में नागों राज रहा।
मारवाड़ क्षेत्र में ग्यारहवीं सदी में धौल्या गोत्री जाटों का राज था। खरनाल के तेजाजी इसी वंष में पैदा हुए। धौल्यों के बाद नागौर से बिलाड़ा और साभर तक एक समय खोखर गोत्री जाटों की हुकुमत थी। इन्होंने यहां पर 11 वीं सदी के मध्य से लेकर 14 वीं सदी के अंत तक राज किया। मारवाड़ एक भूभाग पर एक समय जोहिया जाटों का राज था। राठौड़ों से हारने से पहले उनके अधिकार में 600 गांव थे, जिनमें से कुछ गांव मारवाड़ के भी सम्मिलित थे। मारवाड़ में एक समय बलहारा जाटों का बड़ा राज्य था। बाली बिलाड़ा, बालोतरा इनके राज्य के प्रसिद्ध नगर थे। बलहारा मालानी से मौलासर तक फैले हुए थे। डीडवाना नगर डूडी जाटों ने बसाया।
16वीं सदी मे मारवाड़ के परबतसर परगने के हरनावां गांव में जालमजी की सरदारी थी जो धुण गोत्रीय जाट थे। भक्त शिरोमणि रानांबाई इन्हीं जालमजी की पोती थी। इसी तरह खिंयाला गांव में बड़ियासर गोत्र के जाटों का अधिकार था। वहां के सरदार के पास 27 गांव थे। बाद में दिल्ली सुल्तान के अधीन आ गये। मारवाड़ के आनन्दपुर कालू पर भी बड़ियासर जाटों का राज था। इसी प्रकार जोधपुर के पास झंवर गांव में कालीराणा गोत्र के चौधरियों का दबदबा था।
समय ने करवट ली और मारवाड़ के जाटों ने नियमित सेना नहीं रखी तो राजपूतों की सेनाओ ने हमला किया और वे कुछ कमजोर होने लगे। अब जाट शक्ति एक तरफा जमीन से जुड़कर खेती और पशुपालन में लग गई, जो उनका पैतृक व्यवसाय था। राजपूत शासकों ने राज स्थापित कर अपने उनके गांव जागीर के रूप में उनके छोटे भाइयों को दे दिये। किन्तु गांवों में जाट जाति की बहुलता के कारण जाटों को अपने साथ रखे बिना राजपूत शासकों और जागीरदारों को वहां पर अपना राज चलाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसी परिस्थिति में एक ही विकल्प था कि जाटों को खुश करने और अपने साथ जोड़े रखने के लिये प्रभावशाली जाटों को पट्टीदार (गांवों के समूह का मुखिया) व चौधरी (गांव का मुखिया) आदि बनाने की व्यवस्था कर उन्हें अपने साथ जोड़े रखा ताकि उनको प्रशासन चलाने में किसी प्रकार की परेशानी नहीं हो।
कहीं पर एक और कहीं पर सामूहिक रूप से प्रभावशाली दो विभिन्न गोत्रों के व्यक्तियों को पट्टीदार बनाया गया। बाद में कुछ पट्टीदार वंशानुगत तौर पर बनते गये और कुछ सामूहिक गांव के पट्टीदार हो गये। उदाहरण के तौर पर मेड़ता आंनदपुर कालू के बड़ियासर पट्टीदार के यहां वंशानुगत व्यवस्था बन गई और उनके परिवार में से ही पट्टीदार बनते आये थे, जबकि कलरू में प्रारम्भ में कमेड़िया और भादू दोनों गोत्र के जाटों को पट्टीदार बना दिया जाता था, इसलिये बाद में उनके सारे वंशज पट्टीदार हो गये थे। जब भी कभी कोई काम पड़ता तो कलरू के सारे कमेड़िया और भादू वंशज एकत्रित होकर निर्णय लेते थे। दूसरी और मालाणी परगने में हर गांव में अलग से एक या दो गांव चौधरी होते थे। उनके वंशज वंष परम्परा से चौधरी नियुक्त किये जाते थे। आवश्यकता होने पर दो या तीन गोत्र के जाटों को भी गांव चौधरी बनाये जाने के उदाहरण सामने आते है। उदाहरण के तौर पर मालाणी परगने के गरल गांव में पहले चैधराहट सारण जाटों की थी। उन सारणों के परिवार में कोई जीवित नहीं रहने पर मूंढों को चौधरी का जिम्मा सौंपा गया, तब बहुसंख्यक बेनीवाल नाराज हो गये, तो एक चौधरी बेनीवालों से भी बनाया गया।
ये चौधरी और गांव के मुखिया मिल-बैठकर विभिन्न प्रकार के झगड़ों का निपटारा किया करते थे। इन झगड़ों में मारपीट से लेकर हत्या, सगाई-सगपण और दीवानी मामलों से लेकर फौजदारी, सभी प्रकार के मामले सम्मिलित थे।
आने वाले समय में जाट मात्र खेती और पशुपालन तक सीमित रहे गये तो राजाओं और जागीरदारों ने उन पर अत्याचार बढ़ा दिये। शासक वर्ग जाटों का शोषण करने लगा। उन पर विभिन्न प्रकार की लागें लगा दी और जागीरदार जब चाहे लाग की दर बढा सकता था और लागों की संख्या में वृद्धि कर सकता था। 1941 ई. में ‘मारवाड़ किसान सभा’ ने ‘लागबाग इन्क्वारी कमेटी’ के सामने जागीरों में ली जाने वाली 136 लागों की सूची पेश की। किसान को पग-पग पर लाग देनी पड़ती थी तथा ऊपर से बेगार प्रथा और थी। लाग वसूली तरीके भी अत्यन्त घृणित थे।
हमेशा रात पर रात नहीं पड़ती है। मारवाड़ के कुछ किसान पुत्र फौज और रेलवे में नौकरी करने लगे, तो उन्हें जागीरदारों के अत्याचार और शिक्षा का महत्व समझ में आया। हरियाणा के आर्य समाज का प्रभाव शेखावाटी इलाके में पड़ा। मारवाड़ और शेखावाटी के आपस में सीमावर्ती क्षेत्र में रिश्तेदारी व जाटों के आपस में मिलकर बात करने से मारवाड़ में भी जागृति आने लगी। इसी बीच 1925 ई. में पुष्कर में एक विषाल जाट सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन में जोधपुर रियासत के कई जाटों ने भाग लिया। इसी प्रकार 1934 ई. में सीकर में ‘‘जाट प्रजापति महायज्ञ’’ का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन में भी मारवाड़ रियासत से कई जाट किसान मुखियाओं ने भाग लिया। सीकर से लगते इलाके खासकर नागौर क्षेत्र से बहुसंख्या में किसान गये। वहां पर जाट नेताओं के व्यक्तव्य सुनकर यहां के जाटों में भी जागृति उत्पन्न हुई। उन किसान नेताओं ने वापस मारवाड़ आकर किसानों में चेतना भरने का काम किया।
समय के साथ चौधरी मूलचंद सहित कुछ जाट नेताओं ने यह महसूस किया कि जाटों की रक्षा करने, उनकी आवाज को बुलंद करने तथा उसे प्रभावशाली बनाने के लिये उनका एक मजबूत संगठन होना चाहिये। इस आवश्यकता तो समझकर 22 अगस्त, 1938 को तेजा दशमी के दिन परबतसर पशु मेले के अवसर पर ‘‘मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा’’ नामक संस्था की स्थापना की। चौधरी बाबू गुल्लाराम रतकुड़िया इसके प्रथम अध्यक्ष और नागौर के चौधरी मूलचंद सचिव बनाये गये। सभा का उद्देश्य जाटों व अन्य किसान जातियों में शिक्षा के प्रचार के लिये गांवों में पाठशालायें व छात्रावास स्थापित करना, किसान जातियों में आपसी मेलजोल की भावना को मजबूत करना, कुरीतियां मिटाना, पारस्परिक झगड़ों व मुकदमेंबाजी को कम करना था।
इस सभा द्वारा रामदेवरा के मेले, तिलवाडा मेले, नागौर, परबतसर, मेड़ता, पुष्कर के पषु मेलों में हजारों की संख्या में एकत्रित किसानों को भजन मंडलियों के माध्यम से शिक्षा प्रचार, कुरीतियों को छोड़ने हेतु प्रचार करवाया जाता था।
इसके बाद जोधपुर, बाड़मेर, नागौर, परबतसर, मेड़ता, रतकुडिया, भणियाणा आदि स्थानों पर किसान छात्रावासों की स्थापना की। यहां के जाटों ने जागीरदारी प्रथा के खिलाफ लंबा संघर्ष किया और कई जाटों ने अपनी कुर्बानी दी। डाबड़ा कांड इसका ज्वलंत उदाहरण है।
मारवाड़ में जाट समाज में कई महापुरुष हुए, जिन्होंने वीरता, गौरक्षा, सत्य, ईमानदारी, दानवीरता, न्याय, किसान संघर्ष, शिक्षा के लिये लम्बा सफर तय कर जाटों को नई राह दिखायी।
यहां का जाट सत्यवादिता और वचनपालन के लिये प्राण न्यौछावर कर दे तो वीर तेजाजी, भगवान की भक्ति करे तो खेमा बाबा, करमांबाई, राणाबाई या फूलांबाई, दान कर गीतों में गाये जाने योग्य बनें तो जायल-खियांला के चौधरी, न्याय के ख्याति प्राप्त करे तो झंवर के कालीराणा, किसानो में शिक्षा की जागृति फैलाकर किसान मसीहा बने तो बलदेवराम मिर्धा, चौधरी रामदान, नाथूराम मिर्धा, चै मूलचंद या खरताराम जाखड़, युवाओं के प्रेरणा स्रोत बने तो रामनारायण जिंदा बन जाता है।
सत्यवादी, वचन पालक वीर तेजाजी महाराज मारवाड. नागौर परगने के खरनाल गांव में धौल्या जाटों में ही पैदा हुए। कुंवर तेजाजी का नाम किसान हलसौतियां करने पर सबसे पहले लेते है और उनके नाम की राखड़ी हल पर बांधते है। वीर तेजाजी ने अपना वचन निभाने के लिये बलिदान दे दिया। जब वीर तेजाजी अपने ससुराल पनेर गये, तब लाछां गूजरी की गायें चोर ले गये। तेजाजी उनकी वार में गये और अपने प्राणों की आहूति दी। तेजाजी का यह बलिदान विष्व इतिहास का एक अनुपम उदाहरण है।
भक्त शिरोमणि कर्माबाई इसी मारवाड़ रियासत के कालवा गांव में डूडी गोत्र में ही पैदा हुई। कहते है कि कर्माबाई ने श्रीकृष्ण भगवान को भक्ति के प्रेम में इतना रीझा दिया कि वह उनके घर खीच का भोजन करने आये थे। आज भी जगन्नाथपुरी को भगवान के भोग मे सबसे पहले कर्माबाई का खीच का भोग दिया जाता है। राणांबाई भी इसी रियासत के हरनावां गांव में धूण गोत्र पैदा हुई। फूलांबाई जैसी परमभक्तिन यहीं मांझवास गांव में मांझू गोत्र में पैदा हुई, जहां गोबर की थेपड़ियों में राम-राम गुजांयमान होता था।
भक्तों की आगे बात करें तो खेमा बाबा मालानी परगने के बायतू गांव मे जाखड़ गोत्र में पैदा हुए। ये काला और बाला के देवता माने जाते है। मान्यता है कि खेमा बाबा के नाम की तांती बांधने पर सर्प का जहर उतर जाता है। खेमा बाबा के कई पर्चे लोक-मानस में प्रचलित है।
जायल-खियांला के जाट चौधरी धर्माजी-गोपालजी द्वारा दिल्ली बादशाह के उगाही की रकम से एक अनजान बहिन लिछमां गूजरी के मायेरा की घटना दुनिया को प्रेरणा देने वाली है।
आजादी के आंदोलन के समय के जाट नायकों की बात करें तो बलदेवराम मिर्धा का नाम अग्रणी हैं। मारवाड़ रियासत में पुलिस विभाग में पुलिस डीआईजी रहते हुए किसानों को जागृत करने, शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ जनजागृति लाने का महती प्रयास किया। बाड़मेर जैसे सुदूर इलाके के जाट पीढियों तक यहां के किसान मसीहा चौधरी रामदान के ऋणी रहेंगे। बाड़मेर में किसान छात्रावास की स्थापना, जाटों में जागीरदारी जुल्मों के खिलाफ जागृति पैदा करने जैसे महत्वपूर्ण काम किये। 1962 ई. में राजस्थान विधानसभा में मृत्युभोज जैसी सामाजिक कुरीति के खिलाफ विधेयक लाकर अधिनियम पारित करवाने वाले चौधरी रामदान ही थे।
चौधरी मूलचंद सियाग नागौर ने मारवाड़ रियासत में किसान छात्रावासों की एक श्रृंखला ही खड़ी कर दी। चौधरी बाबू गुल्लाराम रतकुडिया ने मारवाड़ राज्य में अधिकारी रहते हुए शिक्षा का व्यापक प्रचार किया।
कुल मिलाकर कहें कि मारवाड़ रियासत में जाटों का इतिहास प्राचीन एवं स्वर्णिम है, तो कोई अतिष्योक्ति नहीं होगी। यहां के जाटों ने यहां पर प्राचीन काल से ही राज किया। समय के साथ कुछ समय के लिये राज से वंछित रहे हो पर उस समय भी गांव की चैधर जाटों के पास ही रही। लाग-बाग के खिलाफ आंदोलन में भी जाटों ने ही सबसे अधिक संघर्ष किया और कुर्बानियां दी। आजादी के बाद लोकतंत्र में भी मारवाड. का राज जाटों के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा हैं। नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, पारसराम मदेरणा, गौरी पूनिया, गंगाराम चौधरी, कर्नल सोनाराम चौधरी, मदनकोर जैसे सुयोग्य नेताओं ने यहां की अगुवाई की।
जाट खेती, युद्धभूमि और राजनीति हर क्षेत्र में सिद्धहस्त है। कारगिल युद्ध में सबसे अधिक जाट सैनिक शहीद हुए, जिनमें मारवाड़ के दर्जन भर सैनिक थे। आजादी के साथ ही यहां पर शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से विस्तार हुआ, जिसकी बदौलत आज जाट समाज से कई योग्य अधिकारी है। IAS, IPS IRS, RAS, RPS शिक्षा के क्षेत्र सहित तमाम प्रशासनिक सेवाओं मे यहां के काफी जाट अपनी प्रशासनिक क्षमता का लोहा मनवा रहे है।
जाट वीरता, न्याय, दान, शिक्षा, प्रशासनिक नेतृत्व, युद्ध के मैदान में अपनी योग्यता का प्रदर्शन करता रहा है और आशा है कि आगे भी अपने इन गुणों का भरपूर उपयोग कर अपने पूर्वजों के इतिहास को जीवित रखेगा। जाटों की विशेषता राजस्थानी के दोहे में समा जाती है-
जाट समौ इण जगत में, दूजो नहं आवे दाय।
आस करे नहं अवर री, खरी कमाई खाय।
महादेव कहयो मुखे, बेहो धरम री बाट।
दत बांटो दूणां बधो, जड़ी संजीवण जाट।।